राजिमधाम की अधिष्ठात्री देवी माता राजिम
राजिमधाम की अधिष्ठात्री देवी माता राजिम
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में अवस्थित राजिम नगर को प्राचीन काल में पद्मावतीपुरी और कमल क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाने वाला यह तीर्थ तीन नदियों का संगम स्थल है। उत्पलेश्वर (महानदी) पित्रोद्धारिणी (पैरी) और सुंदराभूति (सोंढूर) ये तीनों नदियां यहां मिलती है तथा यहां से चित्रोत्पला कहलाती है। पुरातन काल से ही सांस्कृतिक, अध्यात्मिक, समाजिक समरसता का यह केंद्र वैभवशाली रहा है। इस क्षेत्र में सभी जाति और वंश के लोग बिना किसी भेदभाव के मिलजुल कर रहते थे। उनमें किसी भी प्रकार का कोई जातीय विद्वेष नहीं था। इस तरह यहां सर्वत्र सुख शांति समृद्धि फैली हुई थी। चित्रोत्पला (महानदी) व उत्पलिनी (तेल नदी) का कछार तिलहन उत्पादन के लिए उपयुक्त था। जिससे यहां तैलिक वंश की संख्या बहुतायत थी। वे सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत थे। यह क्षेत्र तेल व्यापार का प्रमुख क्षेत्र था। चित्रोत्पला व उत्पलिनी के माध्यम से तेल का परिवहन होता था। यहीं धर्मदास नाम का एक प्रसिद्ध तेल व्यापारी निवास करते थे। धनाड्य होने के साथ ही वे उदार हृदय के स्वामी थे। अपना सारा धन वे गरीबों की सेवा में समर्पित कर दिए थे। वे जात-पात से दूर रहकर गरीबों की मदद करने में विश्वास करते थे। पुल-पुलिया सड़क धर्मशाला निर्माण के लिए उन्होंने अपना कोष खोल दिया था। कोई भी व्यक्ति उनके चौखट से कभी निराश नही लौटा। यही कारण है कि उनकी ख्याति दूर दूर तक फैली थी। धर्मदास की पत्नि शांतिदेवी थीं जो धार्मिक एवं संस्कारवान थीं। दोनों का जीवन सुखमय ढंग से व्यतीत हो रहा था किंतु एक ही कमी रह रहकर उन्हें कसकती थी। उनका कोई संतान नहीं था। उनकी जीवन बगिया में कोई फूल खिल जाए ऐसी उम्मीद में समय बीत रहा था।
ईश्वरीय प्रेरणा से दोनों पति-पत्नि भगवान विष्णु की नित्य प्रति श्रद्धा भाव से आराधना करने लगे। अब इसे ईश्वरीय कृपा कहें या सुकर्मों का फल। धर्मदास की पत्नि ने माघी पूर्णिमा की रात को सुंदर कन्या को जन्म दिया। नवजात कन्या की आभा इतना तेजोमय था मानो देवलोक की देव कन्या हो। तेजस्वी कन्या के जन्म से प्रसन्न होकर धर्मदास ने दान-पुण्य के साथ साधु संतों की सेवा की। त्रिवेणी संगम के ऋषिगण भी कन्या की दिव्यता से प्रभावित हुए बिना नही रहे। उन्होंने कन्या को आशीर्वाद दिये व उनका नाम राजिम रख दिये।
राजिम धीरे धीरे बड़ी होने लगी। उनकी बाल सुलभ लीलाएं सबके मन को प्रफुल्लित करने लगी। राजिम की तुतली भाषा, उनकी मुस्कान सबके चित में वात्सल्य भाव जगा देती थी। जब राजिम छः वर्ष की हुई तब धर्मदास ने उसे चित्रोत्पला के तट पर स्थित लोमस ऋषि के आश्रम में वेदाध्ययन के लिए भेजा। राजिम सबका सम्मान करने वाली संस्कारवान और प्रतिभाशाली कन्या थी। अतः शीघ्र ही वह अपने गुरु की प्रिय शिष्या बन गई। प्रतिभा संपन्न राजिम अत्यंत कम समय में ही सभी वेदों एवं विधाओं में पारंगत हो गईं। राजिम के मन में भगवान विष्णु के प्रति अटूट आस्था थी। सत्संग एवं भजन का कोई भी अवसर नहीं चूकती थी।
पद्मावतीपुरी में ही धर्मदास का मित्र रतनदास रहता था। दोनों एक दूसरे के व्यापारिक सहयोगी भी थे। दोनों की मित्रता की मिसाल दी जाती थी। एक बार रतनदास का बैल बीमार पड़ गया। जिसे देखने धर्मदास अपने मित्र के घर गया। साथ में वे अपनी पुत्री राजिम को भी ले गये। वहां पहुंचने पर राजिम ने बीमार बैल को वन औषधियों द्वारा उपचार से स्वस्थ कर दी। यह देख कर सभी आश्चर्य चकित हो गए। यह बात सर्वत्र नगर में फैल गई। देखते ही देखते अस्वस्थ असहाय लोगों की भीड़ धर्मदास के घर एकत्र होने लगी। राजिम अपनी वनौषधि संबंधी विशेष ज्ञान से सभी को रोगमुक्त करने लगी। इस प्रकार राजिम की ख्याति चहुंओर फैल गयी। कहते हैं राजिम ने दिव्य जड़ी बूटियों की साधना सिद्ध की थी।
समय कैसे बीता पता नहीं चला। राजिम अब बड़ी हो गयी। माता पिता को भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो गया था। इसलिए वे मन ही मन उसके लिए योग्य वर की तलाश कर रहे थे। धर्मदास अपने मित्र रतनदास के पुत्र अमरदास के संबंध में शांतिदेवी से चर्चा की। दोनों को अमरदास राजिम के लिए योग्य वर लगा। वे रिश्ता लेकर रतनदास के घर गये। रतनदास और उनकी पत्नि सत्यवती ने दोनों की खूब आवभगत की। धर्मदास ने जब अपने आगमन का प्रयोजन सुनाया तब रतनदास को आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ। रतनदास और सत्यवती ने राजिम जैसी गुणवान कन्या को अपने पुत्रवधु बनाने के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। नेक काम में अब विलंब कैसा। चारों ने विचार विमर्श करके विवाह की तिथि निर्धारित किये। दोनों परिवारों ने विवाह की तैयारियां शुरू कर दी। नियत तिथि को वैदिक रीति रिवाज से राजिम और अमरदास का विवाह संपन्न हुआ। धर्मदास और शांतिदेवी ने आशीर्वाद देकर अपनी पुत्री को विदा किये। राजिम को रतनदास और सत्यवती से माता पिता जैसा प्रेम मिला। अमरदास ने भी राजिम के ईश्वर भक्ति को स्वीकार किया। राजिम अब दांपत्य जीवन में प्रवेश कर चुकी थीं। अतः ईश्वर भक्ति के साथ अपनी परिवारिक जिम्मेदारी भी निभाने लगी। राजिम को एक पुत्र तथा एक पुत्री रत्न प्राप्त हुआ।
राजिम प्रत्येक माह की एकादशी तिथि को व्रत रखकर भगवान विष्णु की पूजा आराधना किया करती थी। ऐसे ही एक बार एकादशी को सदैव की भांति प्रातःकाल उठकर चित्रोत्पला नदी में स्नान के लिए गईं। जैसे ही वह स्नान करने के लिए नदी में उतरी, एक पत्थर के टुकड़े से पैर टकराने पर वह गिर पड़ी। राजिम ने उस पत्थर को बाहर निकाला। राजिम उस प्रतिमा स्वरूप पाषाण को घर लाकर घानी में स्थापित कर दिया। इस प्रतिमा से सम्बंधित एक जनश्रुति है कि कांकेर का कंडरा राजा जगन्नाथ पुरी की यात्रा से वापस आते समय पद्मावतीपुरी में भगवान की दिव्य मूर्ति का दर्शन किया। राजा भगवान की मूर्ति पर मोहित हो गया और उसे कांकेर ले जाने का निश्चय किया। जब वह मूर्ति को ले जाने लगा तब वहां के भक्तजनों और नगरवासियों ने विरोध किया। राजा और भक्तों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें राजा विजयी हुआ और मूर्ति को जलमार्ग से ले जाने लगा। नाव जब रुद्री घाट पहुंची तब दैवीय प्रकोप या प्राकृतिक आपदा के कारण नदी में डूब गया। वही मूर्ति महानदी में बहते हुए पुनः पद्मावतीपुरी पहुंच गया जो राजिम माता को मिला। इतनी दूरी तक नदी के बहाव में लुड़कने के कारण प्रतिमा की आकृति क्षीण हो गई थी। राजिम माता नित्य प्रति उस पाषाण प्रतिमा का पूजन करने लगी। माता राजिम उस प्रतिमा को लोचन भगवान कहती थीं। उस प्रतिमा के प्रभाव से रतनदास का घर परिवार धन धान्य और सुख शांति से भरापूरा हो गया।
उसी समय दुर्ग के सामंत जगतपाल/ राजा जगपाल को स्वप्न में ईश्वरादेश हुआ कि वे पद्मावती नगर में उनके लिए भव्य मंदिर का निर्माण करे। ईश्वरीय आदेशानुसार राजा ने भव्य मंदिर का निर्माण किया। अब राजा को इस बात की चिंता हुई कि इस भव्य मंदिर के लिए भगवान की दिव्य मूर्ति कहां से लाया जाये। तब तक माता राजिम के घानी में स्थापित उस अद्भुत विग्रह की बात पूरे नगर में फैल चुका था। कुछ लोगों ने राजा को सुझाव दिया कि वह इस भव्य मंदिर के लिए प्रतिमा हेतु माता राजिम से मिलें। राजा अपनी पत्नी रानी झंकावती को लेकर माता राजिम के पास भगवान की मूर्ति मांगने गये। राजा द्वारा मूर्ति मांगने पर राजिम के आंखों के सामने अंधेरा छा गया। वह चुपचाप एक कोने पर बैठ गईं। भला राजिम अपने प्रभु का वियोग कैसे सहे। लोचन के बिना तो उनका जीवन अंधकारमय हो जायेगा। राजा मूर्ति के भार के बराबर सोना देने का लालच दिया और मूर्ति का वजन कराया। जब सोने का भार मूर्ति से कम हो जाता है तब अपनी रानी अपने सारे गहने उतारकर तराजू में चढ़ा देती है फिर भी भार बराबर नहीं होता है। तब राजिम माता सोने को हटाकर तुलसी की एक पत्ती को तराजू में रख देती हैं। तुलसी की पत्ती से पलड़ा झुक जाता है। इससे राजा को अपनी भूल और अहंकार का ज्ञान होता है। माता राजिम ने कहा कि ईश्वर को सोने से नही खरीदा जा सकता। उसे केवल प्रेम और पवित्रता से ही प्राप्त किया जाता है। यह सोना आप अपने पास ही रखिये। यह सुनकर राजा और रानी माता राजिम के शरणागत हो गये। राजा के अनुनय विनय से माता राजिम दो शर्तों के साथ भगवान की प्रतिमा देना स्वीकार करती हैं। पहला यह कि भगवान के नाम के साथ उसका नाम जोड़ा जाए और दूसरा यह कि नगर का नाम उसके नाम पर रखा जाए। राजा दोनों शर्त स्वीकार कर लेते हैं। इस प्रकार नगर का नाम राजिम और भगवान "राजिमलोचन" कहलाया।
राजिम माता के मन में लोचन भगवान के प्रति असीम स्नेह भाव था। अतः वह प्रतिदिन मंदिर की सीढ़ियों में बैठकर भगवान को निहारती रहती थी। बसंत पंचमी के दिन राजिम माता राजिमलोचन भगवान के मंदिर के सिंह द्वार बैठकर ध्यान करने लगी। यह ध्यान समाधि में बदल गया। माता ने समाधि अवस्था में ही अपने प्राण का उत्सर्ग कर दिया। इस प्रकार उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई। जिस स्थान पर माता राजिम ने अपने प्राण त्याग किए थे उसी स्थान पर आज माता का मंदिर बना हुआ है। माता राजिम ने अपनी अनुपम भक्ति और समर्पण से भक्तों में शिरोमणि स्थान प्राप्त कर तैलिक वंश का मान बढ़ाया है। राजिम नगर संपूर्ण भारत वर्ष के तैलिक वंश की राजधानी के साथ ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति सभ्यता व इतिहास का महत्वपूर्ण केंद्र स्थल है।