About Us

संगठन के बारे में.......
"कर्मा माता सेवा समिति", छत्तीसगढ़ सोसायटी रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1973 (क्रमांक 44 सन 1973) छत्तीसगढ़ शासन एवं नीति आयोग द्वारा रजिस्टर्ड "कर्मा माता सेवा समिति" एक धार्मिक, सांस्कृतिक एवं छत्तीसगढ़ प्रदेश साहू संघ 33/61 से सम्बद्ध एक सामाजिक संगठन है ।
संगठन के मुख्य कार्य-
1. समाज की आर्थिक रुप से कमजोर परिवारो को सहायता करना ।
2. समाज के दिव्यांग लोगों की सहायता करना।
3. समाज के प्रतिभावानों का सम्मान करना।
4. समाज में निःशुल्क सामुहिक आदर्श विवाह कराना।
5. समाज के प्रमुख त्यौहार को सभी के साथ मिलकर मनाना।
6. भारतवर्ष के महापुरुषों और शहीदों की जयंती मनाना।
7. समय-समय पर लोगों को जागृत करने के लिए धार्मिक एवं सामाजिक सम्मेलन का आयोजन करना।
8. समय-समय पर ब्लड डोनेशन कैंप लगाना, मेडिकल कैंप लगाकर निशुल्क दवाइयों का वितरण करना।
9. प्रतिवर्ष पापमोचिनी एकादशी (फाल्गुन कृष्ण पक्ष) के दिन "कर्मा माता जयंती" मनाना।
10. प्रतिवर्ष 7 जनवरी के दिन "राजिम जयंती" मनाना।
11. प्रतिवर्ष "दानवीर भामाशाह जयंती" मनाना।
12. समय-समय पर खेलकूद, वादविवाद, सांस्कृतिक- कार्यक्रम, प्रश्नमंच, साहित्यिक मंच, कवि सम्मेलन एवं विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन करना ।
13. केरियर मार्गदर्शन कार्यशाला का आयोजन ।

संगठन के लक्ष्य-
1. आपस में एक दूसरे से मिलने पर "जय कर्मा माता" कहकर अभिवादन करना।
2. बैठक से पूर्व कर्मा मैया की पूजा अर्चना व आरती करना।
3. दहेज रहित समाज की रचना करना।
4. माता-पिता तथा गुरू की आज्ञा का पालन व सम्मान करना।
5. आपस में निन्दा चुगली का त्याग कर लोगों को सम्मान देना व निर्भीक रहना।
6. सामाजिक उत्सवों को मनाना व उनमें भाग लेना।
7. समाज में बढ़ रही कुरीतियों को दूर करना ।
8. समाज में अन्धविश्वास व आडम्बरों का दूर करना ।
9. समाज में नशामुक्त के लिये प्रयास  करना ।

माँ कर्मा देवी का जीवन परिचय

माँ कर्मा देवी का जीवन परिचय
साहू तेली समाज की आराध्य देवी
जन्म:- पाप मोचनी एकादशी संवत् 1073 सन् 1017ई0 माँ कर्मा आराध्य हमारी, भक्त शिरोमणी मंगलकारी। सेवा, त्याग, भक्ति उद्धारे, जन-जन में माँ अवतारे।।

दसवीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के झांसी नगर में सुप्रसिद्ध तेल व्यापारी रामशाह अपनी पत्नी लीलावती के साथ रहते थे। धार्मिक, दयालु, परोपकारी और सहयोगी स्वभाव के कारण उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। नित्य प्रति ईश्वर की आराधना, पूरे लगन के साथ अपने व्यवसाय में ध्यान देना एवं जरूरतमंदों की सहायता के लिए सदैव तैयार रहना, यही उसकी दिनचर्या थी। विवाह के कई वर्षों पश्चात भी उनका घर-आंगन सुना था। श्रद्धा भाव से इस दंपत्ति ने एकादशी व्रत का संकल्प लिया। प्रतिदिन बेतवा नदी में प्रातः स्नान करके साधु-संतों की सेवा करते हुए दिन की शुरुआत करते तथा भगवान श्री कृष्ण की पूजा के पश्चात ही अन्य कार्य करते थे। उनके नित्य सेवा भाव से प्रसन्न होकर एक तपस्वी साधु ने उन्हें सुयोग्य कन्या का वरदान दिया। श्रद्धा, विश्वास, भजन-पूजन, सुकर्म और सेवा की परिणति से चैत्र कृष्णपक्ष पापमोचनी एकादशी संवत 1073 (सन 1016) को एक सुंदर कन्या रत्न की प्राप्ति हुई।

 कन्या कर्मा अपने माता पिता के संस्कार के प्रभाव से धार्मिक कार्यों में हाथ बटाने तथा भगवद कथा श्रवण में बचपन से ही रुचि लेने लगी। उनके मन में भगवान श्री कृष्ण के प्रति अटूट श्रद्धा भाव था और वह अपने हर कार्य को भगवान श्री कृष्ण के प्रति समर्पण भाव से करती थी। जब माता कर्मा 10 वर्ष की थी। वह अपनी सहेलियों के साथ स्नान करने तालाब गई। सहसा उनकी एक सहेली तालाब में डूबने लगी तब माता कर्मा ने अपने साहस का परिचय देते हुए अपनी सहेली को गहरे पानी से बाहर निकाला। वहां पर अनेक लोग एकत्र हो गए और उस बच्ची के पेट से पानी निकालने लगे परंतु उनको होश नहीं आया। तब माता कर्मा उसे गोद में लिटा कर अपनी आंखें बंद करके भगवान श्री कृष्ण का स्मरण करने लगी। कुछ ही घड़ी में उनकी सहेली को होश आ गया। वहां उपस्थित लोगों ने माता कर्मा की भूरि भूरि प्रशंसा किये। यह बात पूरे नगर में फैल गई और माता कर्मा, कृष्ण के अनन्य भक्त के रूप में पहचानी जाने लगी। ऐसी ही एक अन्य घटना है-एक बार उनकी सहेली नंदिनी के माता-पिता जो दूध बेचने का व्यवसाय करते थे, उन्हें किसी कार्यवश बाहर जाना था। अतएव नंदिनी को कर्मा के संरक्षण में छोड़ कर गए। अगले दिन दूध बेचने का दायित्व नंदिनी पर था। नंदिनी दूध बेचने के लिए मटकी लेकर निकलने वाली थी तभी कर्मा ने अपने घर में स्थित नीम वृक्ष के कोमल टहनियों को तोड़ कर उसकी एक गुड़ी बनाई और उसे अपनी सहेली के सिर पर रख दी। उस दिन नंदिनी को उसी मटकी के दूध से अत्यधिक लाभ हुआ। इस प्रकार बाल सुलभ लीला, भगवत भक्ति, दीन-दुखियों की सेवा करते माता कर्मा का बचपन और किशोरावस्था बीता।

युवा अवस्था में माता कर्मा का विवाह नरवरगढ़ के एक संपन्न घराने के व्यापारी के पुत्र चतुर्भुज शाह (देवतादीन) से हुआ। पति अपने व्यापारिक कार्यों में व्यस्त रहते थे लेकिन अपनी पत्नी कर्मा के कृष्ण भक्ति में कोई व्यवधान उत्पन्न होने नहीं दिया। चतुर्भुज शाह का व्यापार दूर-दूर तक फैला हुआ था। दूरस्थ क्षेत्रों के व्यापारियों का उनके घर आना-जाना लगा रहता था। चतुर्भुज शाह सर्वजन हितार्थ धर्मशाला, सराय, कुएं, अस्पताल, सड़क और पुल- पुलियों का निर्माण करवाये थे। चतुर्भुज शाह के इन्हीं सत्कार्यों के कारण उनके परिवार की ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी चारों ओर फैलने लगी। जिससे कुछ व्यापारी उनसे ईर्ष्या करने लगे और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में स्वयं को अक्षम जानकर चतुर्भुज शाह की प्रतिष्ठा को धूमिल करने, उन्हें किसी तरह से गिराने का षड्यंत्र करने लगे।

दुर्योग से उन्हीं दिनों नरवर राजवंश के कीर्तिराज-सुमित्र के हाथी को असाध्य खुजली रोग हो गया। वैद्य सभी प्रकार का उपचार करके थक गए परंतु उनके प्रिय हाथी की खुजली ठीक न हो सका। तभी षड्यंत्रकारी व्यापारियों को मौका मिला और वे राजा के कान भरने लगे कि नरवरगढ़ के सभी तैलिक परिवार अपने तेल से मोतिया ताल के बड़े कुंड को भरें। उसी कुंड के तेल में हाथी को स्नान कराने से खुजली रोग ठीक होगा। व्यापारियों ने राज ज्योतिषी को भी षड्यंत्र में शामिल कर लिया, जिसके प्रभाव में राजा ने यह अविवेकपूर्ण आदेश दे दिया कि समस्त तैलिक परिवार अपने तेल को ना बेचकर कुंड को पूरा भरें। कई दिन बीत गए पर कुंड भरने का नाम ही नहीं ले रहा था। उधर नरवरगढ़ के तैलिक परिवारों की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी। प्रश्न था अब वे इस संकट से उबरे कैसे? सभी को एकमात्र विकल्प कर्मा की कृष्ण भक्ति की शक्ति में दिखा। इसीलिए सभी तैलिक परिवार चतुर्भुज शाह के घर पहुंचे और माता कर्मा से अनुनय-विनय किये। माता कर्मा ने राज आज्ञा के प्रति रोष प्रकट करते हुए उपस्थित तैलिक समुदाय को विश्वास दिलाया कि प्रभु श्री कृष्ण की कृपा से कोई ना कोई रास्ता जरूर मिलेगा। अगले दिन ईश्वरीय प्रेरणा से माता ने तेल का पात्र लेकर उस कुंड की ओर प्रस्थान किया। माता कर्मा ने जैसे ही अपने पात्र के तेल को कुंड में डाला कुंड लबालब भर गया। वहां उपस्थित लोगों ने माता कर्मा की जय जयकार किया। इस घटना के बाद माता ने संकल्प लिया कि वे ऐसे अन्यायी शासक जो अपने स्वार्थ के लिए प्रजा को पीड़ित और शोषित करते हैं, का पूर्णरूपेण बहिष्कार करेंगे। माता कर्मा ने शोषित और पीड़ित जनता का नेतृत्व करते हुए राजा के गलत नीतियों का साहसपूर्ण विरोध किया। नरवरगढ़ के समस्त तैलिक परिवारों ने चतुर्भुज शाह के नेतृत्व में राजस्थान प्रवास कर वहां परिश्रम एवं सहकार से पुनः धन वैभव अर्जित कर लिया। इसी बीच माता कर्मा ने अपने प्रथम पुत्र को जन्म दिया।

अब माता कर्मा के ऊपर ईश्वर भक्ति के अलावा समाज सेवा और अपने पुत्र के लालन-पालन की भी जिम्मेदारी आ गई। कर्मा अपनी सारी जिम्मेदारी और कर्तव्यों को बखूबी निर्वहन करती। इस प्रकार सुखपूर्वक जीवन व्यतीत होने लगा। परंतु भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। विधाता के लेख को कोई टाल नहीं सकता। चतुर्भुज शाह को एक बीमारी ने घेर लिया और उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। पति के शोक में व्याकुल माता कर्मा ने अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया परंतु उन्हें ईश्वरादेश हुआ कि कर्मा तुम अभी गर्भवती हो इसलिये अपने गर्भस्थ शिशु की रक्षा करो, तुम्हें अभी लोकहित के कार्य करने हैं! धैर्य रखो मैं तुम्हें शीघ्र दर्शन दूंगा। भगवान के आदेश को शिरोधार्य कर प्रभु दर्शन की आशा में उसके दिन गुजरने लगे। अपने दूसरे पुत्र को जन्म देने के बाद माता कर्मा का पूरा समय व्यापारिक, सामाजिक जिम्मेदारी के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा व श्री कृष्ण भक्ति में गुजारने लगी। समय के साथ उनका बड़ा पुत्र वयस्क होकर अपने पैतृक व्यवसाय को बखूबी संभाल रहा था। माता ने एक सुयोग्य कन्या से उसका विवाह कराया और व्यवसाय एवं छोटे भाई की जिम्मेदारी उनको सौंप करके मुट्ठी भर चावल और दाल लेकर रात्रि काल में ही जगन्नाथ पुरी की यात्रा पर निकल पड़ी। माता कर्मा दिन-रात चलती रही, उसे सिर्फ धुन था प्रभु के दर्शन का और वह आगे बढ़ती गई।

कुछ दिनों की यात्रा पश्चात माता कर्मा नगरी-सिहावा पहुंची। वहां सप्तर्षियों के दर्शन कर माता कर्मा नदी मार्ग से जगन्नाथ पुरी धाम जाने का निश्चय करती हैं और करमसेनी वृक्ष के तने की नाव बनाकर नदी मार्ग से आगे बढ़ जाती है। भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी का दिन था, जब वे नदी मार्ग से राजिम पहुंचती हैं। वहीं नदी तट पर एक सारथी अपने घोड़े को धो रहा था। अचानक उसकी नजर माता कर्मा पर पड़ती है, उसे माता कर्मा तपोबल के तेज में देवी के रूप में दिखाई देती है। सारथी माता को हाथ जोड़कर प्रणाम करता है और उनसे विनती करता है कि वह नदी के पास ही उसकी कुटिया में पहुंचकर उनके परिवार को आशीर्वाद दें ताकि उसके परिवार एवं कुटुम्ब का जीवन धन्य हो जाए। सारथी की प्रार्थना को माता स्वीकार कर उसके घर जाने को तैयार हो जाती है। सारथी अपने परिवार के लोगों को सूचना देकर बुलाता है और गाजे-बाजे के साथ फूलों की वर्षा करते हुए माता कर्मा को अपनी बस्ती की ओर ले जाते हैं। वहां उपस्थित उनके समुदाय के समस्त लोग माता के तेज से प्रभावित होते हैं और उनके दर्शन से सभी को सुख का अनुभव होता है। सभी लोग माता को अपने-अपने घर चलने के लिए प्रार्थना करते हैं। तब कर्मा माता कहती है कि मैं सभी के घर नहीं जा पाऊंगी इसलिए गांव के किसी एक स्थान पर एकत्र होकर सत्संग कर सकते हो। सब मिलकर एक चबूतरे को गोबर से लिपाई करते हैं और वहां आसन बिछाकर माता को बैठाते हैं। सभी लोग सेवा सत्कार करके माता को भोजन कराकर प्रसाद ग्रहण करते हैं। कर्मा माता सभी को आशीर्वाद देते हुए अपनी यात्रा पुनः प्रारंभ करने तैयार होती हैं। गांव के लोग आग्रह करते हैं कि-हे माता अब शाम हो रही है, रात्रि में आपका प्रस्थान उचित नहीं है इसलिए आज रात आप हमारे गांव में रुक जाइए, कल प्रातः हम आपको नदी तट पर पहुंचा देंगे। माता द्वारा सहमति दिये जाने पर समुदाय के लोग खुशी से माता की सेवा में रात्रि जागरण करते हैं और भक्ति-भाव से नृत्य-संगीत के माध्यम से माता का सत्कार करते हैं। अगली सुबह जब माता की विदाई बेला आती है, तो उनको विदा करते हुए गांव के सभी स्त्री, पुरुष, बुजुर्ग और बच्चे माता से प्रार्थना करते हैं कि पुरी धाम की यात्रा पूर्ण कर वे उनके बीच पुनः पधारें। माता कहती है कि मैं अब वापस नहीं आ सकूंगी इसलिये तुम सब भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी के दिन करमसेनी वृक्ष की शाखा को स्थापित कर उनकी पूजा करना जिससे मेरा आशीर्वाद तुम सबको प्राप्त होगा। इसके पश्चात सभी लोग माता को नम आंखों से विदाई देते हैं। तब से लेकर आज तक राजिम में सारथी समाज के लोग भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी से 11 दिवसीय कर्मा महोत्सव मनाते हैं और माता कर्मा की पूजा अर्चना करते हैं। मध्य छत्तीसगढ़ का जनजातीय समुदाय करमसेनी वृक्ष में करमसेनी देवी का वास मानते हैं और भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी को करमसेनी वृक्ष की डाल को घर के आंगन में विधि पूर्व की स्थापित कर पूजा करते हैं व रात्रि जागरण करते हुए नृत्य करते हैं।

माता कर्मा महानदी तट पर भगवान राजिमलोचन का दर्शन करके कुलेश्वर महादेव को प्रणाम करते हुए नदी मार्ग से जगन्नाथ पुरी धाम के लिए प्रस्थान करती हैं। इस प्रकार नदी मार्ग से यात्रा करते हुए माता कर्मा एक दिन स्वयं को समुद्र तट पर पाती हैं। वहां पूछने पर माता कर्मा को पता चलता है कि जगन्नाथ पुरी धाम यही है। माता कर्मा हर्षातिरेक में श्री कृष्ण को पुकारते हुए मंदिर की ओर बढ़ जाती हैं। मंदिर के पुजारियों ने मलिन चिथड़े वस्त्र पहनी महिला को सीढ़ियों पर चढ़ते देख क्रोधित होकर दरवाजे पर रोक दिया। कर्मा माता ने कहा कि उसे भगवान जगन्नाथ प्रभु ने बुलाया है, उनके दर्शन के लिए आई है। उसे अपने हाथों से खिचड़ी खिलाना चाहती है। मां कर्मा की बातों पर पुजारी हंसने लगे और उन्हें दुत्कार कर भगा दिए। माता वहां से लौट गई और समुद्र किनारे जाकर अपने साथ लाये चावल दाल से खिचड़ी पकाकर श्री कृष्ण को पुकारने लगी। जगन्नाथ प्रभु बाल रूप में आकर उनके हाथों से खिचड़ी खाते और मां कहकर सम्मानित करते थे। इस प्रकार माता कर्मा प्रतिदिन खिचड़ी बनाकर भगवान कृष्ण को पुकारती थी और प्रभु बाल रूप में उनके हाथों से प्रसाद ग्रहण करने आते थे। माता कर्मा जगन्नाथपुरी धाम में 4 वर्ष रहकर इसी प्रकार भगवान की भक्ति करते हुए लोगों को धार्मिक आडंबर, रूढ़िवाद, ऊंच-नीच और छुआछूत के विरुद्ध जन जागृति का संदेश देने लगी।

एक दिन जब पुजारियों ने जगन्नाथ प्रभु की पूजा के लिए मंदिर के पट खोले तो जगन्नाथ जी के मुंह में खिचड़ी लगा हुआ था। पुजारियों को पता चला कि भगवान बाल रूप में कर्मा की खिचड़ी खाने समुद्र तट पर जाते हैं। इससे पुजारियों को शर्मिंदगी हुई। पूरा वृतांत वहां के गंगवंशी राजा को पता चला तब उन्होंने माता कर्मा को ससम्मान राजभवन में बुलाया। माता ने जगन्नाथ पुरी के मंदिर में अपने आराध्य के दर्शन करते हुए चैत्र शुक्लपक्ष एकम संवत 1121 (सन 1064) को अपना शरीर त्यागकर पुण्य आत्मा ज्योति स्वरूप में भगवान कृष्ण के हृदय में समाहित हो गई। बताया जाता है कि तभी से प्रभु जगन्नाथ को खिचड़ी खिलाने की परंपरा चल रही है। 

माता कर्मा ने अपने समर्पण भाव और अनुपम भक्ति से संसार को श्रद्धा और विश्वास की शक्ति से परिचय कराया। उन्होंने समस्त मानव समाज को समरसता का संदेश दिया। जब जब निश्चल भक्ति और नारी शक्ति का प्रसंग आएगा तब तब माता कर्मा भक्त शिरोमणि एवं नारी शक्ति जागरण की अग्रणी वीरांगना के रूप में सदैव याद किए जाते रहेंगे। विश्ववंदनीय कर्मयोगिनी कल्याणी लोकमाता कर्मा को शत-शत नमन।

राजिमधाम की अधिष्ठात्री देवी माता राजिम 

राजिमधाम की अधिष्ठात्री देवी माता राजिम 

छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में अवस्थित राजिम नगर को प्राचीन काल में पद्मावतीपुरी और कमल क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाने वाला यह तीर्थ तीन नदियों का संगम स्थल है। उत्पलेश्वर (महानदी) पित्रोद्धारिणी (पैरी) और सुंदराभूति (सोंढूर) ये तीनों नदियां यहां मिलती है तथा यहां से चित्रोत्पला कहलाती है। पुरातन काल से ही सांस्कृतिक, अध्यात्मिक, समाजिक समरसता का यह केंद्र वैभवशाली रहा है। इस क्षेत्र में सभी जाति और वंश के लोग बिना किसी भेदभाव के मिलजुल कर रहते थे। उनमें किसी भी प्रकार का कोई जातीय विद्वेष नहीं था। इस तरह यहां सर्वत्र सुख शांति समृद्धि फैली हुई थी। चित्रोत्पला (महानदी) व उत्पलिनी (तेल नदी) का कछार तिलहन उत्पादन के लिए उपयुक्त था। जिससे यहां तैलिक वंश की संख्या बहुतायत थी। वे सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत थे। यह क्षेत्र तेल व्यापार का प्रमुख क्षेत्र था। चित्रोत्पला व उत्पलिनी के माध्यम से तेल का परिवहन होता था। यहीं धर्मदास नाम का एक प्रसिद्ध तेल व्यापारी निवास करते थे। धनाड्य होने के साथ ही वे उदार हृदय के स्वामी थे। अपना सारा धन वे गरीबों की सेवा में समर्पित कर दिए थे। वे जात-पात से दूर रहकर गरीबों की मदद करने में विश्वास करते थे। पुल-पुलिया सड़क धर्मशाला निर्माण के लिए उन्होंने अपना कोष खोल दिया था। कोई भी व्यक्ति उनके चौखट से कभी निराश नही लौटा। यही कारण है कि उनकी ख्याति दूर दूर तक फैली थी। धर्मदास की पत्नि शांतिदेवी थीं जो धार्मिक एवं संस्कारवान थीं। दोनों का जीवन सुखमय ढंग से व्यतीत हो रहा था किंतु एक ही कमी रह रहकर उन्हें कसकती थी। उनका कोई संतान नहीं था। उनकी जीवन बगिया में कोई फूल खिल जाए ऐसी उम्मीद में समय बीत रहा था।
ईश्वरीय प्रेरणा से दोनों पति-पत्नि भगवान विष्णु की नित्य प्रति श्रद्धा भाव से आराधना करने लगे। अब इसे ईश्वरीय कृपा कहें या सुकर्मों का फल। धर्मदास की पत्नि ने माघी पूर्णिमा की रात को सुंदर कन्या को जन्म दिया। नवजात कन्या की आभा इतना तेजोमय था मानो देवलोक की देव कन्या हो। तेजस्वी कन्या के जन्म से प्रसन्न होकर धर्मदास ने दान-पुण्य के साथ साधु संतों की सेवा की। त्रिवेणी संगम के ऋषिगण भी कन्या की दिव्यता से प्रभावित हुए बिना नही रहे। उन्होंने कन्या को आशीर्वाद दिये व उनका नाम राजिम रख दिये।
राजिम धीरे धीरे बड़ी होने लगी। उनकी बाल सुलभ लीलाएं सबके मन को प्रफुल्लित करने लगी। राजिम की तुतली भाषा, उनकी मुस्कान सबके चित में वात्सल्य भाव जगा देती थी। जब राजिम छः वर्ष की हुई तब धर्मदास ने उसे चित्रोत्पला के तट पर स्थित लोमस ऋषि के आश्रम में वेदाध्ययन के लिए भेजा। राजिम सबका सम्मान करने वाली संस्कारवान और प्रतिभाशाली कन्या थी। अतः शीघ्र ही वह अपने गुरु की प्रिय शिष्या बन गई। प्रतिभा संपन्न राजिम अत्यंत कम समय में ही सभी वेदों एवं विधाओं में पारंगत हो गईं। राजिम के मन में भगवान विष्णु के प्रति अटूट आस्था थी। सत्संग एवं भजन का कोई भी अवसर नहीं चूकती थी।
पद्मावतीपुरी में ही धर्मदास का मित्र रतनदास रहता था। दोनों एक दूसरे के व्यापारिक सहयोगी भी थे। दोनों की मित्रता की मिसाल दी जाती थी। एक बार रतनदास का बैल बीमार पड़ गया। जिसे देखने धर्मदास अपने मित्र के घर गया। साथ में वे अपनी पुत्री राजिम को भी ले गये। वहां पहुंचने पर राजिम ने बीमार बैल को वन औषधियों द्वारा उपचार से स्वस्थ कर दी। यह देख कर सभी आश्चर्य चकित हो गए। यह बात सर्वत्र नगर में फैल गई। देखते ही देखते अस्वस्थ असहाय लोगों की भीड़ धर्मदास के घर एकत्र होने लगी। राजिम अपनी वनौषधि संबंधी विशेष ज्ञान से सभी को रोगमुक्त करने लगी। इस प्रकार राजिम की ख्याति चहुंओर फैल गयी। कहते हैं राजिम ने दिव्य जड़ी बूटियों की साधना सिद्ध की थी।
समय कैसे बीता पता नहीं चला। राजिम अब बड़ी हो गयी। माता पिता को भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो गया था। इसलिए वे मन ही मन उसके लिए योग्य वर की तलाश कर रहे थे। धर्मदास अपने मित्र रतनदास के पुत्र अमरदास के संबंध में शांतिदेवी से चर्चा की। दोनों को अमरदास राजिम के लिए योग्य वर लगा। वे रिश्ता लेकर रतनदास के घर गये। रतनदास और उनकी पत्नि सत्यवती ने दोनों की खूब आवभगत की। धर्मदास ने जब अपने आगमन का प्रयोजन सुनाया तब रतनदास को आश्चर्य मिश्रित हर्ष हुआ। रतनदास और सत्यवती ने राजिम जैसी गुणवान कन्या को अपने पुत्रवधु बनाने के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। नेक काम में अब विलंब कैसा। चारों ने विचार विमर्श करके विवाह की तिथि निर्धारित किये। दोनों परिवारों ने विवाह की तैयारियां शुरू कर दी। नियत तिथि को वैदिक रीति रिवाज से राजिम और अमरदास का विवाह संपन्न हुआ। धर्मदास और शांतिदेवी ने आशीर्वाद देकर अपनी पुत्री को विदा किये। राजिम को रतनदास और सत्यवती से माता पिता जैसा प्रेम मिला। अमरदास ने भी राजिम के ईश्वर भक्ति को स्वीकार किया। राजिम अब दांपत्य जीवन में प्रवेश कर चुकी थीं। अतः ईश्वर भक्ति के साथ अपनी परिवारिक जिम्मेदारी भी निभाने लगी। राजिम को एक पुत्र तथा एक पुत्री रत्न प्राप्त हुआ।
राजिम प्रत्येक माह की एकादशी तिथि को व्रत रखकर भगवान विष्णु की पूजा आराधना किया करती थी। ऐसे ही एक बार एकादशी को सदैव की भांति प्रातःकाल उठकर चित्रोत्पला नदी में स्नान के लिए गईं। जैसे ही वह स्नान करने के लिए नदी में उतरी, एक पत्थर के टुकड़े से पैर टकराने पर वह गिर पड़ी। राजिम ने उस पत्थर को बाहर निकाला। राजिम उस प्रतिमा स्वरूप पाषाण को घर लाकर घानी में स्थापित कर दिया। इस प्रतिमा से सम्बंधित एक जनश्रुति है कि कांकेर का कंडरा राजा जगन्नाथ पुरी की यात्रा से वापस आते समय पद्मावतीपुरी में भगवान की दिव्य मूर्ति का दर्शन किया। राजा भगवान की मूर्ति पर मोहित हो गया और उसे कांकेर ले जाने का निश्चय किया। जब वह मूर्ति को ले जाने लगा तब वहां के भक्तजनों और नगरवासियों ने विरोध किया। राजा और भक्तों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें राजा विजयी हुआ और मूर्ति को जलमार्ग से ले जाने लगा। नाव जब रुद्री घाट पहुंची तब दैवीय प्रकोप या प्राकृतिक आपदा के कारण नदी में डूब गया। वही मूर्ति महानदी में बहते हुए पुनः पद्मावतीपुरी पहुंच गया जो राजिम माता को मिला। इतनी दूरी तक नदी के बहाव में लुड़कने के कारण प्रतिमा की आकृति क्षीण हो गई थी। राजिम माता नित्य प्रति उस पाषाण प्रतिमा का पूजन करने लगी। माता राजिम उस प्रतिमा को लोचन भगवान कहती थीं। उस प्रतिमा के प्रभाव से रतनदास का घर परिवार धन धान्य और सुख शांति से भरापूरा हो गया।
उसी समय दुर्ग के सामंत जगतपाल/ राजा जगपाल को स्वप्न में ईश्वरादेश हुआ कि वे पद्मावती नगर में उनके लिए भव्य मंदिर का निर्माण करे। ईश्वरीय आदेशानुसार राजा ने भव्य मंदिर का निर्माण किया। अब राजा को इस बात की चिंता हुई कि इस भव्य मंदिर के लिए भगवान की दिव्य मूर्ति कहां से लाया जाये। तब तक माता राजिम के घानी में स्थापित उस अद्भुत विग्रह की बात पूरे नगर में फैल चुका था। कुछ लोगों ने राजा को सुझाव दिया कि वह इस भव्य मंदिर के लिए प्रतिमा हेतु माता राजिम से मिलें। राजा अपनी पत्नी रानी झंकावती को लेकर माता राजिम के पास भगवान की मूर्ति मांगने गये। राजा द्वारा मूर्ति मांगने पर राजिम के आंखों के सामने अंधेरा छा गया। वह चुपचाप एक कोने पर बैठ गईं। भला राजिम अपने प्रभु का वियोग कैसे सहे। लोचन के बिना तो उनका जीवन अंधकारमय हो जायेगा। राजा मूर्ति के भार के बराबर सोना देने का लालच दिया और मूर्ति का वजन कराया। जब सोने का भार मूर्ति से कम हो जाता है तब अपनी रानी अपने सारे गहने उतारकर तराजू में चढ़ा देती है फिर भी भार बराबर नहीं होता है। तब राजिम माता सोने को हटाकर तुलसी की एक पत्ती को तराजू में रख देती हैं। तुलसी की पत्ती से पलड़ा झुक जाता है। इससे राजा को अपनी भूल और अहंकार का ज्ञान होता है। माता राजिम ने कहा कि ईश्वर को सोने से नही खरीदा जा सकता। उसे केवल प्रेम और पवित्रता से ही प्राप्त किया जाता है। यह सोना आप अपने पास ही रखिये। यह सुनकर राजा और रानी माता राजिम के शरणागत हो गये। राजा के अनुनय विनय से माता राजिम दो शर्तों के साथ भगवान की प्रतिमा देना स्वीकार करती हैं। पहला यह कि भगवान के नाम के साथ उसका नाम जोड़ा जाए और दूसरा यह कि नगर का नाम उसके नाम पर रखा जाए। राजा दोनों शर्त स्वीकार कर लेते हैं। इस प्रकार नगर का नाम राजिम और भगवान "राजिमलोचन" कहलाया।
राजिम माता के मन में लोचन भगवान के प्रति असीम स्नेह भाव था। अतः वह प्रतिदिन मंदिर की सीढ़ियों में बैठकर भगवान को निहारती रहती थी। बसंत पंचमी के दिन राजिम माता राजिमलोचन भगवान के मंदिर के सिंह द्वार बैठकर ध्यान करने लगी। यह ध्यान समाधि में बदल गया। माता ने समाधि अवस्था में ही अपने प्राण का उत्सर्ग कर दिया। इस प्रकार उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई। जिस स्थान पर माता राजिम ने अपने प्राण त्याग किए थे उसी स्थान पर आज माता का मंदिर बना हुआ है। माता राजिम ने अपनी अनुपम भक्ति और समर्पण से भक्तों में शिरोमणि स्थान प्राप्त कर तैलिक वंश का मान बढ़ाया है। राजिम नगर संपूर्ण भारत वर्ष के तैलिक वंश की राजधानी के साथ ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति सभ्यता व इतिहास का महत्वपूर्ण केंद्र स्थल है।

कौन थे भामाशाह, क्यों कहा जाता है दानवीर...

भामाशाह भारतीय इतिहास के एक ऐसे नायक थे, जिनका नाम त्याग और बलिदान की मिसाल के रूप में लिया जाता है। उनका जन्म राजस्थान के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। वे न केवल एक सफल व्यापारी थे, बल्कि मेवाड़ साम्राज्य के कुशल मंत्री भी थे। उनके परिवार की आर्थिक समृद्धि और निष्ठा ने उन्हें महाराणा प्रताप के लिए एक सच्चे सहयोगी के रूप में स्थापित किया। भामाशाह की दूरदर्शिता और प्रबंधन क्षमता ने उन्हें मेवाड़ की राजनीति और आर्थिक संरचना का एक मजबूत स्तंभ बनाया।

मुगल सम्राट अकबर के नेतृत्व में मेवाड़ पर लगातार आक्रमण हो रहे थे, और इन संघर्षों के बीच महाराणा प्रताप को अपने राज्य को स्वतंत्र बनाए रखने के लिए गंभीर आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इन कठिन समयों में भामाशाह ने अपनी पूरी संपत्ति महाराणा प्रताप को दान में दे दी। यह एक अद्वितीय घटना थी, क्योंकि उस समय उनकी संपत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक एक बड़ी सेना को आर्थिक रूप से संचालित किया जा सकता था। भामाशाह ने यह दान न केवल अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए दिया, बल्कि यह भी दर्शाया कि राष्ट्रधर्म किसी भी व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर है।

इस महान कार्य के पीछे भामाशाह का उद्देश्य सिर्फ महाराणा प्रताप की मदद करना नहीं था, बल्कि भारत की स्वतंत्रता और गौरव को बनाए रखना भी था। उनके इस योगदान ने मेवाड़ के इतिहास में एक नया अध्याय लिखा। महाराणा प्रताप ने इस धन का उपयोग करके अपनी सेना को पुनर्गठित किया और मुगलों के खिलाफ अपनी लड़ाई को और अधिक प्रभावी बनाया। भामाशाह का यह बलिदान न केवल उनके आर्थिक योगदान के कारण महत्वपूर्ण है, बल्कि यह उनके चरित्र की महानता और उनके देशभक्ति की गहराई को भी दर्शाता है।

उनका जीवन इस बात का प्रतीक है कि सच्चा देशभक्त वही है, जो अपनी संपत्ति, समय और प्रयासों को बिना किसी स्वार्थ के राष्ट्र की भलाई के लिए समर्पित कर दे। भामाशाह ने यह साबित किया कि व्यक्तिगत बलिदान और निस्वार्थ सेवा से बड़ी कोई चीज नहीं होती। उनके इस महान कार्य के कारण उन्हें "दानवीर" की उपाधि दी गई। उनका नाम आज भी इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है और उनकी कहानी भारत के प्रत्येक नागरिक को प्रेरणा देती है। उनका त्याग और बलिदान यह संदेश देता है कि जब भी राष्ट्र संकट में हो, हर व्यक्ति को अपने सामर्थ्य अनुसार उसकी रक्षा के लिए आगे आना चाहिए।