माँ कर्मा देवी का जीवन परिचय
माँ कर्मा देवी का जीवन परिचय
साहू तेली समाज की आराध्य देवी
जन्म:- पाप मोचनी एकादशी संवत् 1073 सन् 1017ई0 माँ कर्मा आराध्य हमारी, भक्त शिरोमणी मंगलकारी। सेवा, त्याग, भक्ति उद्धारे, जन-जन में माँ अवतारे।।
दसवीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के झांसी नगर में सुप्रसिद्ध तेल व्यापारी रामशाह अपनी पत्नी लीलावती के साथ रहते थे। धार्मिक, दयालु, परोपकारी और सहयोगी स्वभाव के कारण उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। नित्य प्रति ईश्वर की आराधना, पूरे लगन के साथ अपने व्यवसाय में ध्यान देना एवं जरूरतमंदों की सहायता के लिए सदैव तैयार रहना, यही उसकी दिनचर्या थी। विवाह के कई वर्षों पश्चात भी उनका घर-आंगन सुना था। श्रद्धा भाव से इस दंपत्ति ने एकादशी व्रत का संकल्प लिया। प्रतिदिन बेतवा नदी में प्रातः स्नान करके साधु-संतों की सेवा करते हुए दिन की शुरुआत करते तथा भगवान श्री कृष्ण की पूजा के पश्चात ही अन्य कार्य करते थे। उनके नित्य सेवा भाव से प्रसन्न होकर एक तपस्वी साधु ने उन्हें सुयोग्य कन्या का वरदान दिया। श्रद्धा, विश्वास, भजन-पूजन, सुकर्म और सेवा की परिणति से चैत्र कृष्णपक्ष पापमोचनी एकादशी संवत 1073 (सन 1016) को एक सुंदर कन्या रत्न की प्राप्ति हुई।
कन्या कर्मा अपने माता पिता के संस्कार के प्रभाव से धार्मिक कार्यों में हाथ बटाने तथा भगवद कथा श्रवण में बचपन से ही रुचि लेने लगी। उनके मन में भगवान श्री कृष्ण के प्रति अटूट श्रद्धा भाव था और वह अपने हर कार्य को भगवान श्री कृष्ण के प्रति समर्पण भाव से करती थी। जब माता कर्मा 10 वर्ष की थी। वह अपनी सहेलियों के साथ स्नान करने तालाब गई। सहसा उनकी एक सहेली तालाब में डूबने लगी तब माता कर्मा ने अपने साहस का परिचय देते हुए अपनी सहेली को गहरे पानी से बाहर निकाला। वहां पर अनेक लोग एकत्र हो गए और उस बच्ची के पेट से पानी निकालने लगे परंतु उनको होश नहीं आया। तब माता कर्मा उसे गोद में लिटा कर अपनी आंखें बंद करके भगवान श्री कृष्ण का स्मरण करने लगी। कुछ ही घड़ी में उनकी सहेली को होश आ गया। वहां उपस्थित लोगों ने माता कर्मा की भूरि भूरि प्रशंसा किये। यह बात पूरे नगर में फैल गई और माता कर्मा, कृष्ण के अनन्य भक्त के रूप में पहचानी जाने लगी। ऐसी ही एक अन्य घटना है-एक बार उनकी सहेली नंदिनी के माता-पिता जो दूध बेचने का व्यवसाय करते थे, उन्हें किसी कार्यवश बाहर जाना था। अतएव नंदिनी को कर्मा के संरक्षण में छोड़ कर गए। अगले दिन दूध बेचने का दायित्व नंदिनी पर था। नंदिनी दूध बेचने के लिए मटकी लेकर निकलने वाली थी तभी कर्मा ने अपने घर में स्थित नीम वृक्ष के कोमल टहनियों को तोड़ कर उसकी एक गुड़ी बनाई और उसे अपनी सहेली के सिर पर रख दी। उस दिन नंदिनी को उसी मटकी के दूध से अत्यधिक लाभ हुआ। इस प्रकार बाल सुलभ लीला, भगवत भक्ति, दीन-दुखियों की सेवा करते माता कर्मा का बचपन और किशोरावस्था बीता।
युवा अवस्था में माता कर्मा का विवाह नरवरगढ़ के एक संपन्न घराने के व्यापारी के पुत्र चतुर्भुज शाह (देवतादीन) से हुआ। पति अपने व्यापारिक कार्यों में व्यस्त रहते थे लेकिन अपनी पत्नी कर्मा के कृष्ण भक्ति में कोई व्यवधान उत्पन्न होने नहीं दिया। चतुर्भुज शाह का व्यापार दूर-दूर तक फैला हुआ था। दूरस्थ क्षेत्रों के व्यापारियों का उनके घर आना-जाना लगा रहता था। चतुर्भुज शाह सर्वजन हितार्थ धर्मशाला, सराय, कुएं, अस्पताल, सड़क और पुल- पुलियों का निर्माण करवाये थे। चतुर्भुज शाह के इन्हीं सत्कार्यों के कारण उनके परिवार की ख्याति दिन दूनी रात चौगुनी चारों ओर फैलने लगी। जिससे कुछ व्यापारी उनसे ईर्ष्या करने लगे और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में स्वयं को अक्षम जानकर चतुर्भुज शाह की प्रतिष्ठा को धूमिल करने, उन्हें किसी तरह से गिराने का षड्यंत्र करने लगे।
दुर्योग से उन्हीं दिनों नरवर राजवंश के कीर्तिराज-सुमित्र के हाथी को असाध्य खुजली रोग हो गया। वैद्य सभी प्रकार का उपचार करके थक गए परंतु उनके प्रिय हाथी की खुजली ठीक न हो सका। तभी षड्यंत्रकारी व्यापारियों को मौका मिला और वे राजा के कान भरने लगे कि नरवरगढ़ के सभी तैलिक परिवार अपने तेल से मोतिया ताल के बड़े कुंड को भरें। उसी कुंड के तेल में हाथी को स्नान कराने से खुजली रोग ठीक होगा। व्यापारियों ने राज ज्योतिषी को भी षड्यंत्र में शामिल कर लिया, जिसके प्रभाव में राजा ने यह अविवेकपूर्ण आदेश दे दिया कि समस्त तैलिक परिवार अपने तेल को ना बेचकर कुंड को पूरा भरें। कई दिन बीत गए पर कुंड भरने का नाम ही नहीं ले रहा था। उधर नरवरगढ़ के तैलिक परिवारों की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी। प्रश्न था अब वे इस संकट से उबरे कैसे? सभी को एकमात्र विकल्प कर्मा की कृष्ण भक्ति की शक्ति में दिखा। इसीलिए सभी तैलिक परिवार चतुर्भुज शाह के घर पहुंचे और माता कर्मा से अनुनय-विनय किये। माता कर्मा ने राज आज्ञा के प्रति रोष प्रकट करते हुए उपस्थित तैलिक समुदाय को विश्वास दिलाया कि प्रभु श्री कृष्ण की कृपा से कोई ना कोई रास्ता जरूर मिलेगा। अगले दिन ईश्वरीय प्रेरणा से माता ने तेल का पात्र लेकर उस कुंड की ओर प्रस्थान किया। माता कर्मा ने जैसे ही अपने पात्र के तेल को कुंड में डाला कुंड लबालब भर गया। वहां उपस्थित लोगों ने माता कर्मा की जय जयकार किया। इस घटना के बाद माता ने संकल्प लिया कि वे ऐसे अन्यायी शासक जो अपने स्वार्थ के लिए प्रजा को पीड़ित और शोषित करते हैं, का पूर्णरूपेण बहिष्कार करेंगे। माता कर्मा ने शोषित और पीड़ित जनता का नेतृत्व करते हुए राजा के गलत नीतियों का साहसपूर्ण विरोध किया। नरवरगढ़ के समस्त तैलिक परिवारों ने चतुर्भुज शाह के नेतृत्व में राजस्थान प्रवास कर वहां परिश्रम एवं सहकार से पुनः धन वैभव अर्जित कर लिया। इसी बीच माता कर्मा ने अपने प्रथम पुत्र को जन्म दिया।
अब माता कर्मा के ऊपर ईश्वर भक्ति के अलावा समाज सेवा और अपने पुत्र के लालन-पालन की भी जिम्मेदारी आ गई। कर्मा अपनी सारी जिम्मेदारी और कर्तव्यों को बखूबी निर्वहन करती। इस प्रकार सुखपूर्वक जीवन व्यतीत होने लगा। परंतु भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। विधाता के लेख को कोई टाल नहीं सकता। चतुर्भुज शाह को एक बीमारी ने घेर लिया और उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। पति के शोक में व्याकुल माता कर्मा ने अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया परंतु उन्हें ईश्वरादेश हुआ कि कर्मा तुम अभी गर्भवती हो इसलिये अपने गर्भस्थ शिशु की रक्षा करो, तुम्हें अभी लोकहित के कार्य करने हैं! धैर्य रखो मैं तुम्हें शीघ्र दर्शन दूंगा। भगवान के आदेश को शिरोधार्य कर प्रभु दर्शन की आशा में उसके दिन गुजरने लगे। अपने दूसरे पुत्र को जन्म देने के बाद माता कर्मा का पूरा समय व्यापारिक, सामाजिक जिम्मेदारी के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा व श्री कृष्ण भक्ति में गुजारने लगी। समय के साथ उनका बड़ा पुत्र वयस्क होकर अपने पैतृक व्यवसाय को बखूबी संभाल रहा था। माता ने एक सुयोग्य कन्या से उसका विवाह कराया और व्यवसाय एवं छोटे भाई की जिम्मेदारी उनको सौंप करके मुट्ठी भर चावल और दाल लेकर रात्रि काल में ही जगन्नाथ पुरी की यात्रा पर निकल पड़ी। माता कर्मा दिन-रात चलती रही, उसे सिर्फ धुन था प्रभु के दर्शन का और वह आगे बढ़ती गई।
कुछ दिनों की यात्रा पश्चात माता कर्मा नगरी-सिहावा पहुंची। वहां सप्तर्षियों के दर्शन कर माता कर्मा नदी मार्ग से जगन्नाथ पुरी धाम जाने का निश्चय करती हैं और करमसेनी वृक्ष के तने की नाव बनाकर नदी मार्ग से आगे बढ़ जाती है। भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी का दिन था, जब वे नदी मार्ग से राजिम पहुंचती हैं। वहीं नदी तट पर एक सारथी अपने घोड़े को धो रहा था। अचानक उसकी नजर माता कर्मा पर पड़ती है, उसे माता कर्मा तपोबल के तेज में देवी के रूप में दिखाई देती है। सारथी माता को हाथ जोड़कर प्रणाम करता है और उनसे विनती करता है कि वह नदी के पास ही उसकी कुटिया में पहुंचकर उनके परिवार को आशीर्वाद दें ताकि उसके परिवार एवं कुटुम्ब का जीवन धन्य हो जाए। सारथी की प्रार्थना को माता स्वीकार कर उसके घर जाने को तैयार हो जाती है। सारथी अपने परिवार के लोगों को सूचना देकर बुलाता है और गाजे-बाजे के साथ फूलों की वर्षा करते हुए माता कर्मा को अपनी बस्ती की ओर ले जाते हैं। वहां उपस्थित उनके समुदाय के समस्त लोग माता के तेज से प्रभावित होते हैं और उनके दर्शन से सभी को सुख का अनुभव होता है। सभी लोग माता को अपने-अपने घर चलने के लिए प्रार्थना करते हैं। तब कर्मा माता कहती है कि मैं सभी के घर नहीं जा पाऊंगी इसलिए गांव के किसी एक स्थान पर एकत्र होकर सत्संग कर सकते हो। सब मिलकर एक चबूतरे को गोबर से लिपाई करते हैं और वहां आसन बिछाकर माता को बैठाते हैं। सभी लोग सेवा सत्कार करके माता को भोजन कराकर प्रसाद ग्रहण करते हैं। कर्मा माता सभी को आशीर्वाद देते हुए अपनी यात्रा पुनः प्रारंभ करने तैयार होती हैं। गांव के लोग आग्रह करते हैं कि-हे माता अब शाम हो रही है, रात्रि में आपका प्रस्थान उचित नहीं है इसलिए आज रात आप हमारे गांव में रुक जाइए, कल प्रातः हम आपको नदी तट पर पहुंचा देंगे। माता द्वारा सहमति दिये जाने पर समुदाय के लोग खुशी से माता की सेवा में रात्रि जागरण करते हैं और भक्ति-भाव से नृत्य-संगीत के माध्यम से माता का सत्कार करते हैं। अगली सुबह जब माता की विदाई बेला आती है, तो उनको विदा करते हुए गांव के सभी स्त्री, पुरुष, बुजुर्ग और बच्चे माता से प्रार्थना करते हैं कि पुरी धाम की यात्रा पूर्ण कर वे उनके बीच पुनः पधारें। माता कहती है कि मैं अब वापस नहीं आ सकूंगी इसलिये तुम सब भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी के दिन करमसेनी वृक्ष की शाखा को स्थापित कर उनकी पूजा करना जिससे मेरा आशीर्वाद तुम सबको प्राप्त होगा। इसके पश्चात सभी लोग माता को नम आंखों से विदाई देते हैं। तब से लेकर आज तक राजिम में सारथी समाज के लोग भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी से 11 दिवसीय कर्मा महोत्सव मनाते हैं और माता कर्मा की पूजा अर्चना करते हैं। मध्य छत्तीसगढ़ का जनजातीय समुदाय करमसेनी वृक्ष में करमसेनी देवी का वास मानते हैं और भाद्रपद शुक्लपक्ष एकादशी को करमसेनी वृक्ष की डाल को घर के आंगन में विधि पूर्व की स्थापित कर पूजा करते हैं व रात्रि जागरण करते हुए नृत्य करते हैं।
माता कर्मा महानदी तट पर भगवान राजिमलोचन का दर्शन करके कुलेश्वर महादेव को प्रणाम करते हुए नदी मार्ग से जगन्नाथ पुरी धाम के लिए प्रस्थान करती हैं। इस प्रकार नदी मार्ग से यात्रा करते हुए माता कर्मा एक दिन स्वयं को समुद्र तट पर पाती हैं। वहां पूछने पर माता कर्मा को पता चलता है कि जगन्नाथ पुरी धाम यही है। माता कर्मा हर्षातिरेक में श्री कृष्ण को पुकारते हुए मंदिर की ओर बढ़ जाती हैं। मंदिर के पुजारियों ने मलिन चिथड़े वस्त्र पहनी महिला को सीढ़ियों पर चढ़ते देख क्रोधित होकर दरवाजे पर रोक दिया। कर्मा माता ने कहा कि उसे भगवान जगन्नाथ प्रभु ने बुलाया है, उनके दर्शन के लिए आई है। उसे अपने हाथों से खिचड़ी खिलाना चाहती है। मां कर्मा की बातों पर पुजारी हंसने लगे और उन्हें दुत्कार कर भगा दिए। माता वहां से लौट गई और समुद्र किनारे जाकर अपने साथ लाये चावल दाल से खिचड़ी पकाकर श्री कृष्ण को पुकारने लगी। जगन्नाथ प्रभु बाल रूप में आकर उनके हाथों से खिचड़ी खाते और मां कहकर सम्मानित करते थे। इस प्रकार माता कर्मा प्रतिदिन खिचड़ी बनाकर भगवान कृष्ण को पुकारती थी और प्रभु बाल रूप में उनके हाथों से प्रसाद ग्रहण करने आते थे। माता कर्मा जगन्नाथपुरी धाम में 4 वर्ष रहकर इसी प्रकार भगवान की भक्ति करते हुए लोगों को धार्मिक आडंबर, रूढ़िवाद, ऊंच-नीच और छुआछूत के विरुद्ध जन जागृति का संदेश देने लगी।
एक दिन जब पुजारियों ने जगन्नाथ प्रभु की पूजा के लिए मंदिर के पट खोले तो जगन्नाथ जी के मुंह में खिचड़ी लगा हुआ था। पुजारियों को पता चला कि भगवान बाल रूप में कर्मा की खिचड़ी खाने समुद्र तट पर जाते हैं। इससे पुजारियों को शर्मिंदगी हुई। पूरा वृतांत वहां के गंगवंशी राजा को पता चला तब उन्होंने माता कर्मा को ससम्मान राजभवन में बुलाया। माता ने जगन्नाथ पुरी के मंदिर में अपने आराध्य के दर्शन करते हुए चैत्र शुक्लपक्ष एकम संवत 1121 (सन 1064) को अपना शरीर त्यागकर पुण्य आत्मा ज्योति स्वरूप में भगवान कृष्ण के हृदय में समाहित हो गई। बताया जाता है कि तभी से प्रभु जगन्नाथ को खिचड़ी खिलाने की परंपरा चल रही है।
माता कर्मा ने अपने समर्पण भाव और अनुपम भक्ति से संसार को श्रद्धा और विश्वास की शक्ति से परिचय कराया। उन्होंने समस्त मानव समाज को समरसता का संदेश दिया। जब जब निश्चल भक्ति और नारी शक्ति का प्रसंग आएगा तब तब माता कर्मा भक्त शिरोमणि एवं नारी शक्ति जागरण की अग्रणी वीरांगना के रूप में सदैव याद किए जाते रहेंगे। विश्ववंदनीय कर्मयोगिनी कल्याणी लोकमाता कर्मा को शत-शत नमन।